Atal Bihari Vajpayee Life Story: अभिषेक चौधरी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी ‘वाजपेयी: द एसेंट ऑफ द हिंदू राइट 1924-1977’ लिखी है। इसमें वह वाजपेयी से जुड़ी कई बातों को ध्वस्त करते नजर आते हैं। नीलम राज ने इस बारे में अभिषेक चौधरी से बात की।
वाजपेयी के बारे में तमाम किताबें लिखी गई हैं। उनके जीवन में आपकी दिलचस्पी क्यों पैदा हुई?
– साल 2015 में जब मैं इस प्रोजेक्ट से जुड़ा, तब मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि उनके बारे में कोई बड़ा अध्ययन नहीं हुआ है। मैंने कुछ महीने आर्काइव्स खंगाले तो नए तथ्य और व्याख्याएं सामने आईं। मैंने पाया कि हम उनके शुरुआती जीवन के बारे में कितना कम जानते हैं। 1948-49 में जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा (महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया था), तो वह गिरफ्तारी से किस तरह बचे। किस तरह वह इलाहाबाद और बनारस में छिपे रहे। 1955 में कैंसर से अपने माता-पिता की अचानक हुई मृत्यु का दर्द उन्होंने कैसे सहा। इन सबके बारे में काफी कम जानकारी थी।
– इस बीच, बीजेपी सरकार बनने के बाद वाजपेयी के बारे में दिलचस्पी और बढ़ी। लेकिन अधिकतर किताबें दूसरों के कहे-सुने के आधार पर लिख दी गईं। कई बार तो ज्यादा फोकस उनके जाहिर तौर पर दिखने वाले उदार नजरिए, मांसाहार करने और ड्रिंकिंग हैबिट के इर्दगिर्द ही रखा गया। मुझे लगा कि अगर मैं आर्काइव्स को कुछ और खंगालूं तो वाजपेयी के बारे में कई अहम चीजें सामने आ सकती हैं।
क्या वाजपेयी अच्छे स्टूडेंट नहीं थे, हिंदू तन मन कविता उन्होंने कहां लिखी थी?
– वाजपेयी ग्वालियर में 1935 से 1945 तक रहे। उन दिनों का उनकी राजनीति पर गहरा असर है। कई मायनों में वह प्रभाव जीवनभर बना रहा। वहीं किशोर उम्र के वाजपेयी का इतिहास के आर्य समाजी रूप से परिचय हुआ। अखबारों, नाटकों और उपन्यासों के जरिए वह उस इतिहास में गहरे डूबते चले गए कि किस तरह हिंदुओं के महान प्राचीन भारत को मुसलमान और ब्रिटिश हमलावरों ने नुकसान पहुंचाया।
– ग्वालियर में ही वाजपेयी ने अपनी सबसे प्रसिद्ध कविता ‘हिंदू तन मन’ लिखी थी। वहीं वह पहली बार आरएसएस की शाखा में गए और वहीं लोगों ने उनकी बेहतरीन भाषण कला को देखा। ग्वालियर में ही वाजपेयी ने अपना पहला स्टूडेंट यूनियन इलेक्शन जीता। 1945 में जब वह अपनी मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई के लिए कानपुर गए (उसके बाद वह फिर अपने गृह नगर नहीं लौटे), तब तक उनके पॉलिटिकल करियर की दिशा काफी हद तक तय हो चुकी थी। काफी हद तक कंजर्वेटिव, लेकिन चीजों को जानने-समझने की चाहत रखने वाले, किसी चीज से बहुत लगाव न दिखाने वाले, लेकिन महत्वाकांक्षा रखने वाले वाजपेयी तब तक अपना आकार ले चुके थे।
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वाजपेयी क्या नेहरू का सम्मान नहीं करते थे? दोनों के रिश्ते को आपने कैसा पाया?
– संसद में 1957 में उनके बीच की शुरुआती बातचीत में तल्खी थी। वाजपेयी नेहरू की विफलताओं के बारे में लगातार प्रहार कर रहे थे। प्रधानमंत्री तब उन्हें एक तरह से इस तरह देख रहे थे कि यह सब थोड़ी देर के लिए हल्ला-गुल्ला करने वाली बात है। लेकिन कभी-कभी वह वाजपेयी को ‘काफी आपत्तिजनक व्यक्ति’ के रूप में भी देखते थे। यह तनातनी लेकिन धीरे-धीरे घटने लगी।
– वाजपेयी ने देखा कि नेहरू कभी-कभार नाराज भले ही हो जाते हों, लेकिन कुलमिलाकर वह सहनशील व्यक्ति थे और विपक्ष के बारे में कोई एक राय बनाकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे। नेहरू विपक्ष के लोगों से कभी-कभी सलाह भी कर लिया करते थे। वाजपेयी के बारे में उनकी यह राय भी बनने लगी कि वह ऐसे प्रभावशाली नौजवान हैं, जो पुरातनपंथी पार्टी में पड़े हुए हैं।
– यह बात कही जाती है कि नेहरू ने कहा था कि वाजपेयी एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। ऐसा कुछ नहीं था। नेहरू के लिए ऐसा कहने का मतलब यह था कि देश संघ परिवार चलाएगा। नेहरू ऐसा सोच भी नहीं सकते थे। सीमा विवाद और खासतौर से चीन के मुद्दे पर नेहरू और वाजपेयी के बीच संसद में और संसद के बाहर तीखी बातें हुईं। यह सब नेहरू के आखिरी दिनों तक चलता रहा। लेकिन निजी तौर पर दोनों में कोई शत्रुता नहीं थी।
क्या वाजपेयी को जनसंघ और फिर बीजेपी के उभार का श्रेय देने में कंजूसी की गई है?
– मैंने इस बारे में लिखा है, लेकिन मेरे कहने का यह मतलब नहीं है। मैं तो वाजपेयी के बारे में जो मिथक बना लिए गए हैं, उनका जवाब देने की कोशिश कर रहा हूं। मेरा कहना है कि दक्षिणपंथी हिंदू उभार का और गहराई से आकलन किए जाने की जरूरत है।
n– मेरा कहना यह है कि जनसंघ और बीजेपी के उभार को केवल अयोध्या आंदोलन के बाईप्रोडक्ट के रूप में न देखा जाए। ऐसा करना सच से मुंह फेरने जैसा है। ऐसा करने वाले लोग पहले के ट्रेंड को नजरंदाज कर देते हैं।
– जनसंघ ने 1957 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटें जीती थीं। वहां से 1967 में सीटें 35 हुईं और फिर 1977 में उसने 90 सीटें जीतीं। इसको देखना चाहिए। फिर अयोध्या, यूनिफॉर्म सिविल कोड, आर्टिकल 370 और गोवध पर प्रतिबंध की जो बातें बीजेपी और आरएसएस अब जोरशोर से कर रहे हैं, वे सभी उन पिछले दशकों से चली आ रही हैं। वाजपेयी 1957 से ही पार्टी का चेहरा थे और उसके प्रमुख रणनीतिकारों में थे। इस तरह देखें तो संघ का भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने या इसके हिंदूकरण का जो प्रोजेक्ट है, उसमें वाजपेयी कहीं ज्यादा अहम व्यक्ति हैं। आडवाणी जैसे व्यक्तियों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण।
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राजकुमारी कौल और वाजपेयी के संबंधों के बारे में आपका क्या कहना है?
– वाजपेयी शुरुआती दिनों में उभरते हुए राजनीतिक सितारे तो थे, लेकिन इमोशनल लेवल पर वह बिल्कुल अकेले थे। 1955 में उनके माता-पिता की एक के बाद एक मृत्यु हो गई थी। उसका गहरा आघात उन्हें लगा था। मन को शांति मिले, इसका कोई जरिया उनके पास नहीं था। राजकुमारी उनके जीवन में इमोशनल सहारे के रूप में आईं, लेकिन यह कहना कि सही नहीं है कि वाजपेयी की राजनीतिक शैली को नरम बनाने या बुद्धिजीवी के रूप में उनके उभार में राजकुमारी का कोई योगदान था। हां, यह बात जरूर है कि राजकुमारी कौल के पति प्रफेसर बी एन कौल कभी-कभी वाजपेयी के भाषणों को कुछ साज-संवार देते थे।